यार का कूचा है मस्जूद-ए-ख़लाइक़ देख ले
संग है का'बे में मूरत दैर में है मुश्तरक
Allama Iqbal
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ख़त्त-ए-आज़ादी लिखा था शोख़ ने फ़र्दा ग़लत
दर्द-ए-दिल का किसे करूँ इज़हार
ख़ुदा को सज्दा कर के मुब्तज़िल ज़ाहिद हुआ अब तो
मारा जावेगा भाग ऐ नासेह
इश्क़ है ऐ दिल कठिन कुछ ख़ाना-ए-ख़ाला नहीं
कुछ अपने काम नहीं आवे जाम-ए-जम की किताब
फ़ासिक़ जो अगर आशिक़-ए-दीवाना हुआ तो क्या
मोहब्बत मा-सिवा की जिस ने की गोरी कलोटी की
पाँच दिन को जो यहाँ पर आ गया
इस अर्ज़ के तख़्ते पर संसार है और मैं हूँ
नासेहा वा'ज़ जो कहता था तुझे बिन देखे