जिस तरह कूचे में तेरे फिरते हैं हम बर-तरफ़
ऐ सितमगारी हमारी तर्ज़ हैं कम बर-तरफ़
दिल से 'अफ़रीदी' के अपने हुस्न के सदक़े से यार
कीजिएगा दो जहाँ के जितने हैं ग़म बर-तरफ़
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ये मुश्त-ए-ख़ाक अपने को जहाँ चाहे तहाँ ले जा
हम ने तो उजाड़ और बस्ती देखी
अजब तरह की है दुनिया ब-रंग-ए-बू-क़लमूँ
कुछ अपने काम नहीं आवे जाम-ए-जम की किताब
हम न महज़ूज़ हुए हैं किसी शय से ऐसे
लब-ए-शीरीं से अगर हो न तेरा लब शीरीं
जता न मेरे तईं अपना तू हुनर वाइ'ज़
बस नहीं चलता है वर्ना अपने मर जाने के साथ
मातम-ए-रंज-ओ-अलम ग़म हैं बहम चारों एक
बंदा-परवर जो न पछ्ताइएगा
मोहब्बत मा-सिवा की जिस ने की गोरी कलोटी की
रखता है अपने हुस्न पर वो दिल रुबा घमंड