ख़त्त-ए-आज़ादी लिखा था शोख़ ने फ़र्दा ग़लत
दिल में रखता और कुछ ज़ाहिर लिखा इंशा ग़लत
'आफ़रीदी' जो मिले छाती लगा आँखों में रख
दस्तख़त उस का अगर इमला है सर-ता-पा ग़लत
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क्या फ़रोग़-ए-बज़्म उस मह-रू का शब सद-रंग था
जता न मेरे तईं अपना तू हुनर वाइ'ज़
जब किसी ने आन कर दिल से मिरे पुरख़ाश की
कुफ़्र-ए-इश्क़ आया बदल मुझ मोमिन-ए-दीं-दार तक
जी रहे या न रहे हर क़दम-ए-यार न छोड़
अगर शम्अ हुए तो गल गए हम
कुछ अपने काम नहीं आवे जाम-ए-जम की किताब
है जुदा सज्दा की जा हिन्दू मुसलमाँ की मगर
फेर रोज़-ए-फ़िराक़-ए-यार आया
शराब साक़ी-ए-कौसर से लीजो 'आफ़रीदी'
यार का कूचा है मस्जूद-ए-ख़लाइक़ देख ले
कहाँ का नंग रहा और और कहाँ रहा नामूस