'क़ाएम' जो कहें हैं फ़ारसी यार
इस से तो ये रेख़्ता है बेहतर
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तर्क-ए-वफ़ा गरचे सदाक़त नहीं
दिन ही मिलिएगा या शब आइएगा
क़िस्सा-ए-बरहना-पाई को मिरे ऐ मजनूँ
मुझ बे-गुनह के क़त्ल का आहंग कब तलक
निगाहों से निगाहें सामने होते ही जब लड़ियाँ
गर्म कर दे तू टुक आग़ोश में आ
जाते ही हो गर ख़्वाह-नख़वाह
इक ढब पे कभू वो बुत-ए-ख़ुद-काम न पाया
दर्द-ए-दिल कुछ कहा नहीं जाता
शैख़-जी क्यूँकि मआसी से बचें हम कि गुनाह
क़िस्मत तो देख टूटी है जा कर कहाँ कमंद
आज आप मिरे हाल पे करते हैं तअस्सुफ़