क़ाएम मैं ग़ज़ल तौर किया रेख़्ता वर्ना
इक बात लचर सी ब-ज़बान-ए-दकनी थी
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आतिश-ए-तब ने की है ताब शुरूअ
टुक फ़हम इरादत से बरहमन की समझ शैख़
हम दिवानों को बस है पोशिश से
पास-ए-इख़्लास सख़्त है तकलीफ़
जिस मुसल्ले पे छिड़किए न शराब
मय पी जो चाहे आतिश-ए-दोज़ख़ से तू नजात
न पूछो कि 'क़ाएम' का क्या हाल है
लाएक़ वफ़ा के ख़ल्क़ ओ सज़ा-ए-जफ़ा हूँ मैं
किधर अबरू की उस के धाक नहीं
दुनिया में हम रहे तो कई दिन प इस तरह
शब किस से ये हम जुदा रहे हैं
आज आप मिरे हाल पे करते हैं तअस्सुफ़