'क़ाएम' मैं इख़्तियार किया शाएरी का ऐब
पहुँचा न कोई शख़्स जब अपने हुनर तलक
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क़ाज़ी ख़बर ले मय को भी लिक्खा है वाँ मुबाह
न कह कि बे-असर अन्फ़ास-ए-सर्द होते हैं
ऐ इश्क़ मिरे दोश पे तू बोझ रख अपना
याँ सदा नीश-ए-बला वक़्फ़-ए-जिगर-रेशी है
सैर उस कूचे की करता हूँ कि जिब्रील जहाँ
लाएक़ वफ़ा के ख़ल्क़ ओ सज़ा-ए-जफ़ा हूँ मैं
गंदुमी रंग जो है दुनिया में
पढ़ के क़ासिद ख़त मिरा उस बद-ज़बाँ ने क्या कहा
मस्जिद से गर तू शैख़ निकाला हमें तो क्या
न पूछो कि 'क़ाएम' का क्या हाल है
मिरा जी गो तुझे प्यारा नहीं है
कहता है आइना कि है तुझ सा ही एक और