'क़ाएम' मैं रेख़्ता को दिया ख़िलअत-ए-क़ुबूल
वर्ना ये पेश-ए-अहल-ए-हुनर क्या कमाल था
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रहने दे शब अपने पास मुझ को
ख़त के आते ही वो मुखड़े की सफ़ाई क्या हुई
न बीम-ए-ग़म है ने शादी की हम उम्मीद करते हैं
जाते ही हो गर ख़्वाह-नख़वाह
जी तलक आतिश-ए-हिज्राँ में सँभाला न गया
आगे मिरे न ग़ैर से गो तुम ने बात की
न कह कि बे-असर अन्फ़ास-ए-सर्द होते हैं
देखा है आज राह में हम इक हरीर-पोश
छोड़ मावा-ए-ज़क़न ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ में फँसा
दर्द-ए-दिल कुछ कहा नहीं जाता
कर न जुरअत तू ऐ तबीब कि ये
दूँ हम-सरी में बैठ के किस ना-सज़ा के साथ