क़ाज़ी ख़बर ले मय को भी लिक्खा है वाँ मुबाह
रिश्वत का है जवाज़ तिरी जिस किताब में
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याँ सदा नीश-ए-बला वक़्फ़-ए-जिगर-रेशी है
'क़ाएम' मैं रेख़्ता को दिया ख़िलअत-ए-क़ुबूल
गो याँ न किसी को आए अफ़सोस
ख़स नमत साथ मौज के लग ले
हम हैं जिन्हों ने नाम-ए-चमन बू नहीं किया
कल ऐ आशोब-ए-नाला आज नहीं
टुकड़े कई इक दिल के मैं आपस में सिए हैं
शिकवा न बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को
नहीं बंद-ए-क़बा में तन हमारा
न दिल भरा है न अब नम रहा है आँखों में
किस बात पर तिरी मैं करूँ ए'तिबार हाए
वहशत-ए-दिल कोई शहरों में समा सकती है