क़िस्मत तो देख टूटी है जा कर कहाँ कमंद
कुछ दूर अपने हाथ से जब बाम रह गया
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याँ सदा नीश-ए-बला वक़्फ़-ए-जिगर-रेशी है
शैख़-जी माना मैं इस को तुम फ़रिश्ता हो तो हो
टुकड़े कई इक दिल के मैं आपस में सिए हैं
कभू दिखा के कमर और कभू दहाँ मुझ को
चाहें हैं ये हम भी कि रहे पाक मोहब्बत
इक ढब पे कभू वो बुत-ए-ख़ुद-काम न पाया
गो याँ न किसी को आए अफ़सोस
गर्म कर दे तू टुक आग़ोश में आ
डहा खड़ा है हज़ारों जगह से क़स्र-ए-वजूद
देखा कभू न उस दिल-ए-नाशाद की तरफ़
ये पास-ए-दीं तिरा है सब उस वक़्त तक कि शैख़
वाक़िफ़ नहीं हम कि क्या है बेहतर