क़िस्सा-ए-बरहना-पाई को मिरे ऐ मजनूँ
ख़ार से पूछ कि सब नोक-ए-ज़बाँ है उस को
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अब तू ने गुल न गुल्सिताँ है याद
फूटी भली वो आँख जो आँसू से तर नहीं
हर इक सूरत में तुझ को जानते हैं
शिकवा न बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को
जिया ब-काम कब इस बख़्त-ए-अर्जुमंद से मैं
मैं किन आँखों से ये देखूँ कि साया साथ हो तेरे
आज आप मिरे हाल पे करते हैं तअस्सुफ़
संग को आब करें पल में हमारी बातें
आज जी में है कि खुल कर मय-परस्ती कीजिए
मैं न वो हूँ कि तनिक ग़ुस्से में टल जाऊँगा
बड़ न कह बात को तीं हज़रत-ए-'क़ाएम' की कि वो
मुझ बे-गुनह के क़त्ल का आहंग कब तलक