रस्म इस घर की नहीं दाद किसू की दे कोई
शोर-ओ-ग़ौग़ा न कर ऐ मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार अबस
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बा'द ख़त आने के उस से था वफ़ा का एहतिमाल
मैं कहा अहद क्या किया था रात
दुर्द पी लेते हैं और दाग़ पचा जाते हैं
जिया ब-काम कब इस बख़्त-ए-अर्जुमंद से मैं
शिकवा न बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को
गर्म कर दे तू टुक आग़ोश में आ
पहले ही अपनी कौन थी वाँ क़द्र-ओ-मंज़िलत
परवाने की शब की शाम हूँ मैं
तेरी ज़बाँ से ख़स्ता कोई ज़ार है कोई
सहरा पे गर जुनूँ मुझे लावे इताब में
टूटा जो काबा कौन सी ये जा-ए-ग़म है शैख़