रौनक़-ए-बादा-परस्ती थी हमीं तक जब से
हम ने की तौबा कहीं नाम-ए-ख़राबात नहीं
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याँ सदा नीश-ए-बला वक़्फ़-ए-जिगर-रेशी है
तरफ़ ने बंद किया है हर इक तरफ़ से तुझे
किस बात पर तिरी मैं करूँ ए'तिबार हाए
दुनिया में हम रहे तो कई दिन प इस तरह
जिस चश्म को वो मेरा ख़ुश-चश्म नज़र आया
अब तू ने गुल न गुल्सिताँ है याद
शिकवा न बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को
वाशुद की दिल के और कोई राह ही नहीं
डहा खड़ा है हज़ारों जगह से क़स्र-ए-वजूद
बा'द ख़त आने के उस से था वफ़ा का एहतिमाल
कर न जुरअत तू ऐ तबीब कि ये
पहले ही अपनी कौन थी वाँ क़द्र-ओ-मंज़िलत