सैर उस कूचे की करता हूँ कि जिब्रील जहाँ
जा के बोला कि बस अब आगे मैं जल जाऊँगा
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शिकवा न बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को
है बे-असर ऐसी ही जो अपनी कशिश-ए-दिल
दर्द-ए-दिल कुछ कहा नहीं जाता
दिल को फाँसा है हर इक उज़्व की तेरे छब ने
शैख़-जी क्यूँकि मआसी से बचें हम कि गुनाह
फूटी भली वो आँख जो आँसू से तर नहीं
याँ तलक ख़ुश हूँ अमारिद से कि ऐ रब्ब-ए-करीम
चाहें हैं ये हम भी कि रहे पाक मोहब्बत
उठ जाए गर ये बीच से पर्दा हिजाब का
रौनक़-ए-बादा-परस्ती थी हमीं तक जब से
शैख़-जी माना मैं इस को तुम फ़रिश्ता हो तो हो
जिस मुसल्ले पे छिड़किए न शराब