संग को आब करें पल में हमारी बातें
लेकिन अफ़्सोस यही है कि कहाँ सुनते हो
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थोड़ी सी बात में 'क़ाएम' की तू होता है ख़फ़ा
न कह कि बे-असर अन्फ़ास-ए-सर्द होते हैं
रौनक़-ए-बादा-परस्ती थी हमीं तक जब से
पास-ए-इख़्लास सख़्त है तकलीफ़
गर यही ना-साज़ी-ए-दीं है तो इक दिन शैख़-जी
मय पी जो चाहे आतिश-ए-दोज़ख़ से तू नजात
क़ाज़ी ख़बर ले मय को भी लिक्खा है वाँ मुबाह
अबस हैं नासेहा हम से ज़-ख़ुद-रफ़तों की तदबीरें
कल ऐ आशोब-ए-नाला आज नहीं
आतिश-ए-तब ने की है ताब शुरूअ
याँ तलक ख़ुश हूँ अमारिद से कि ऐ रब्ब-ए-करीम
क्या में क्या ए'तिबार मेरा