शैख़-जी माना मैं इस को तुम फ़रिश्ता हो तो हो
लेक हज़रत-आदमी होना निहायत दूर है
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होना था ज़िंदगी ही में मुँह शैख़ का सियाह
'क़ाएम' हयात-ओ-मर्ग-ए-बुज़-ओ-गाव में हैं नफ़अ
'क़ाएम' मैं रेख़्ता को दिया ख़िलअत-ए-क़ुबूल
एक जागह पे नहीं है मुझे आराम कहीं
गो ब-नाम इक ज़बान रखती है शम्अ
देखा है आज राह में हम इक हरीर-पोश
ओहदे से तेरे हम को बर आया न जाएगा
मय पी जो चाहे आतिश-ए-दोज़ख़ से तू नजात
कब मैं कहता हूँ कि तेरा मैं गुनहगार न था
परवाने की शब की शाम हूँ मैं
लाएक़ वफ़ा के ख़ल्क़ ओ सज़ा-ए-जफ़ा हूँ मैं
हो गर ऐसे ही मिरी शक्ल से बेज़ार बहुत