तर्क कर अपना भी कि इस राह में
हर कोई शायान-ए-रिफ़ाक़त नहीं
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वाशुद की दिल के और कोई राह ही नहीं
हम हैं जिन्हों ने नाम-ए-चमन बू नहीं किया
जी में चुहलें थीं जो कुछ सो तो गईं यार के साथ
होना था ज़िंदगी ही में मुँह शैख़ का सियाह
चाहिए आदमी हो बार-ए-तअल्लुक़ से बरी
ज़ालिम तू मेरी सादा-दिली पर तो रहम कर
ता-चंद सुख़न-साज़ी-ए-नैरंग-ए-ख़राबात
गह पीर-ए-शैख़ गाह मुरीद-ए-मुग़ाँ रहे
है बे-असर ऐसी ही जो अपनी कशिश-ए-दिल
क्या में क्या ए'तिबार मेरा
देखा है आज राह में हम इक हरीर-पोश
उठ जाए गर ये बीच से पर्दा हिजाब का