थोड़ी सी बात में 'क़ाएम' की तू होता है ख़फ़ा
कुछ हरमज़दगईं अपनी भी तुझे याद हैं शैख़
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मैं दिवाना हूँ सदा का मुझे मत क़ैद करो
शिकवा न बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को
जिस मुसल्ले पे छिड़किए न शराब
'क़ाएम' जो कहें हैं फ़ारसी यार
गिर्या तो 'क़ाएम' थमा मिज़्गाँ अभी होंगे न ख़ुश्क
आओ कुछ शग़्ल करें बैठे हैं उर्यां इतने
न कह कि बे-असर अन्फ़ास-ए-सर्द होते हैं
देखा कभू न उस दिल-ए-नाशाद की तरफ़
यूँही रंजिश हो और गिला भी यूँही
टुक तो ख़ामोश रखो मुँह में ज़बाँ सुनते हो
क़िस्मत तो देख टूटी है जा कर कहाँ कमंद
याँ तलक ख़ुश हूँ अमारिद से कि ऐ रब्ब-ए-करीम