टुक फ़हम इरादत से बरहमन की समझ शैख़
क्या कम है ख़ुदा से तिरे हंगामा बुताँ का
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दूँ हम-सरी में बैठ के किस ना-सज़ा के साथ
टुकड़े कई इक दिल के मैं आपस में सिए हैं
न कह कि बे-असर अन्फ़ास-ए-सर्द होते हैं
न जाने कौन सी साअत चमन से बिछड़े थे
बा'द ख़त आने के उस से था वफ़ा का एहतिमाल
आओ कुछ शग़्ल करें बैठे हैं उर्यां इतने
लाएक़ वफ़ा के ख़ल्क़ ओ सज़ा-ए-जफ़ा हूँ मैं
बड़ न कह बात को तीं हज़रत-ए-'क़ाएम' की कि वो
कल ऐ आशोब-ए-नाला आज नहीं
ख़त के आते ही वो मुखड़े की सफ़ाई क्या हुई
हम मूए फिरते हैं और ख़्वाहिश-ए-जाँ है उस को
यूँही रंजिश हो और गिला भी यूँही