वहशत-ए-दिल कोई शहरों में समा सकती है
काश ले जाए जुनूँ सू-ए-बयाबाँ मुझ को
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हर दम आने से मैं भी हूँ नादिम
शिकवा न बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को
शामत है क्या कि शैख़ से कोई मिले कि वाँ
लगाई आग पानी में ये किस के अक्स ने प्यारे
सुब्ह तक था वहीं ये मुख़्लिस भी
बड़ न कह बात को तीं हज़रत-ए-'क़ाएम' की कि वो
क़ाएम मैं ग़ज़ल तौर किया रेख़्ता वर्ना
तरफ़ ने बंद किया है हर इक तरफ़ से तुझे
ईराद कर न पढ़ के मिरा ख़त कि ये तमाम
न पूछो कि 'क़ाएम' का क्या हाल है
दिल को फाँसा है हर इक उज़्व की तेरे छब ने