ज़ालिम तू मेरी सादा-दिली पर तो रहम कर
रूठा था तुझ से आप ही और आप मन गया
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गंदुमी रंग जो है दुनिया में
दिल पा के उस की ज़ुल्फ़ में आराम रह गया
कर इम्तिहाँ टुक हो के तू खूँ-ख़्वार यक तरफ़
जी में चुहलें थीं जो कुछ सो तो गईं यार के साथ
मअनी न आएँ दर्क में ग़ैर-अज़-वजूद-ए-लफ़्ज़
हम दिवानों को बस है पोशिश से
मैं ख़ूब अहल-ए-जहाँ देखे और जहाँ देखा
ईराद कर न पढ़ के मिरा ख़त कि ये तमाम
पढ़ के क़ासिद ख़त मिरा उस बद-ज़बाँ ने क्या कहा
तेरी ज़बाँ से ख़स्ता कोई ज़ार है कोई
बिना थी ऐश-ए-जहाँ की तमाम ग़फ़लत पर
ऐ इश्क़ मिरे दोश पे तू बोझ रख अपना