अब तो हर हाथ का पत्थर हमें पहचानता है
उम्र गुज़री है तिरे शहर में आते जाते
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लोग हर मोड़ पे रुक रुक के सँभलते क्यूँ हैं
सब को रुस्वा बारी बारी किया करो
रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं
रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है
दिलों में आग लबों पर गुलाब रखते हैं
बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर
मैं लाख कह दूँ कि आकाश हूँ ज़मीं हूँ मैं
हाथ ख़ाली हैं तिरे शहर से जाते जाते
शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए
अपने दीवार-ओ-दर से पूछते हैं
ये सर्द रातें भी बन कर अभी धुआँ उड़ जाएँ
शजर हैं अब समर-आसार मेरे