घर के बाहर ढूँढता रहता हूँ दुनिया
घर के अंदर दुनिया-दारी रहती है
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बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए
जो मंसबों के पुजारी पहन के आते हैं
शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए
शाम ने जब पलकों पे आतिश-दान लिया
मज़ा चखा के ही माना हूँ मैं भी दुनिया को
अपने दीवार-ओ-दर से पूछते हैं
अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए
आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो
मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था
मैं ने अपनी ख़ुश्क आँखों से लहू छलका दिया
चेहरों की धूप आँखों की गहराई ले गया
चराग़ों को उछाला जा रहा है