हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे
कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते
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रोज़ पत्थर की हिमायत में ग़ज़ल लिखते हैं
अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए
शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम
चराग़ों को उछाला जा रहा है
तेरी हर बात मोहब्बत में गवारा कर के
नए किरदार आते जा रहे हैं
अब तो हर हाथ का पत्थर हमें पहचानता है
अपने दीवार-ओ-दर से पूछते हैं
शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए
घर से ये सोच के निकला हूँ कि मर जाना है
कहीं अकेले में मिल कर झिंझोड़ दूँगा उसे
लोग हर मोड़ पे रुक रुक के सँभलते क्यूँ हैं