मैं आ कर दुश्मनों में बस गया हूँ
यहाँ हमदर्द हैं दो-चार मेरे
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अंदर का ज़हर चूम लिया धुल के आ गए
शाम ने जब पलकों पे आतिश-दान लिया
मिरी ख़्वाहिश है कि आँगन में न दीवार उठे
बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए
मैं पर्बतों से लड़ता रहा और चंद लोग
मुझे डुबो के बहुत शर्मसार रहती है
बोतलें खोल कर तो पी बरसों
ये ज़रूरी है कि आँखों का भरम क़ाएम रहे
वो चाहता था कि कासा ख़रीद ले मेरा
ज़िंदगी की हर कहानी बे-असर हो जाएगी
अंधेरे चारों तरफ़ साएँ साएँ करने लगे
उठी निगाह तो अपने ही रू-ब-रू हम थे