मैं पर्बतों से लड़ता रहा और चंद लोग
गीली ज़मीन खोद के फ़रहाद हो गए
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जब कभी फूलों ने ख़ुश्बू की तिजारत की है
तुम्हारे नाम पर मैं ने हर आफ़त सर पे रक्खी थी
बोतलें खोल कर तो पी बरसों
जो मंसबों के पुजारी पहन के आते हैं
घर से ये सोच के निकला हूँ कि मर जाना है
वो चाहता था कि कासा ख़रीद ले मेरा
काली रातों को भी रंगीन कहा है मैं ने
शजर हैं अब समर-आसार मेरे
हाथ ख़ाली हैं तिरे शहर से जाते जाते
बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए
नए किरदार आते जा रहे हैं
कहीं अकेले में मिल कर झिंझोड़ दूँगा उसे