मिरी ख़्वाहिश है कि आँगन में न दीवार उठे
मिरे भाई मिरे हिस्से की ज़मीं तू रख ले
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सवाल घर नहीं बुनियाद पर उठाया है
जब कभी फूलों ने ख़ुश्बू की तिजारत की है
काली रातों को भी रंगीन कहा है मैं ने
मैं ने अपनी ख़ुश्क आँखों से लहू छलका दिया
मज़ा चखा के ही माना हूँ मैं भी दुनिया को
आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो
मेरे कारोबार में सब ने बड़ी इमदाद की
मेरे अश्कों ने कई आँखों में जल-थल कर दिया
मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था
मोहब्बतों के सफ़र पर निकल के देखूँगा
जो ये हर-सू फ़लक मंज़र खड़े हैं