न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा
हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा
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बैर दुनिया से क़बीले से लड़ाई लेते
उसे अब के वफ़ाओं से गुज़र जाने की जल्दी थी
कभी दिमाग़ कभी दिल कभी नज़र में रहो
शजर हैं अब समर-आसार मेरे
ये ज़रूरी है कि आँखों का भरम क़ाएम रहे
शाम ने जब पलकों पे आतिश-दान लिया
बोतलें खोल कर तो पी बरसों
शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए
उठी निगाह तो अपने ही रू-ब-रू हम थे
मुझे डुबो के बहुत शर्मसार रहती है
पुराने दाँव पर हर दिन नए आँसू लगाता है