रोज़ तारों को नुमाइश में ख़लल पड़ता है
चाँद पागल है अँधेरे में निकल पड़ता है
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लोग हर मोड़ पे रुक रुक के सँभलते क्यूँ हैं
तेरी हर बात मोहब्बत में गवारा कर के
पुराने दाँव पर हर दिन नए आँसू लगाता है
हों लाख ज़ुल्म मगर बद-दुआ' नहीं देंगे
वो चाहता था कि कासा ख़रीद ले मेरा
नदी ने धूप से क्या कह दिया रवानी में
अजनबी ख़्वाहिशें सीने में दबा भी न सकूँ
मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था
रात की धड़कन जब तक जारी रहती है
दिलों में आग लबों पर गुलाब रखते हैं
शाम ने जब पलकों पे आतिश-दान लिया
शजर हैं अब समर-आसार मेरे