वो चाहता था कि कासा ख़रीद ले मेरा
मैं उस के ताज की क़ीमत लगा के लौट आया
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बीमार को मरज़ की दवा देनी चाहिए
जो ये हर-सू फ़लक मंज़र खड़े हैं
बैर दुनिया से क़बीले से लड़ाई लेते
शाम ने जब पलकों पे आतिश-दान लिया
जब कभी फूलों ने ख़ुश्बू की तिजारत की है
शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए
शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम
मज़ा चखा के ही माना हूँ मैं भी दुनिया को
ज़िंदगी को ज़ख़्म की लज़्ज़त से मत महरूम कर
आँख में पानी रखो होंटों पे चिंगारी रखो
बैठे बैठे कोई ख़याल आया
मैं लाख कह दूँ कि आकाश हूँ ज़मीं हूँ मैं