ये ज़रूरी है कि आँखों का भरम क़ाएम रहे
नींद रक्खो या न रक्खो ख़्वाब मेयारी रखो
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जब कभी फूलों ने ख़ुश्बू की तिजारत की है
चेहरों की धूप आँखों की गहराई ले गया
सवाल घर नहीं बुनियाद पर उठाया है
नए किरदार आते जा रहे हैं
मोहब्बतों के सफ़र पर निकल के देखूँगा
मिरी ख़्वाहिश है कि आँगन में न दीवार उठे
अब तो हर हाथ का पत्थर हमें पहचानता है
सब को रुस्वा बारी बारी किया करो
शाख़ों से टूट जाएँ वो पत्ते नहीं हैं हम
मैं आख़िर कौन सा मौसम तुम्हारे नाम कर देता
सिसकती रुत को महकता गुलाब कर दूँगा
ज़िंदगी को ज़ख़्म की लज़्ज़त से मत महरूम कर