पुख़्ता होने न दिया ख़ाम भी रहने न दिया
पुख़्ता होने न दिया ख़ाम भी रहने न दिया
इश्क़ ने ख़ास तो क्या आम भी रहने न दिया
हाए-रे गर्दिश-ए-अय्याम कि अब के तू ने
शिकवा-ए-गर्दिश-ए-अय्याम भी रहने न दिया
आख़िर-कार पुकारा उसे ज़ालिम कह कर
दर्द ने दोस्त का इकराम भी रहने न दिया
कोई क्यूँ आएगा दोबारा तिरी जन्नत में
दाना भी छीन लिया दाम भी रहने न दिया
ऐश में पहले कहाँ अपनी बसर होती थी
याद ने दो घड़ी आराम भी रहने न दिया
दिल को आवारगियाँ दूर बहुत छोड़ आईं
ज़िक्र-ए-ख़ैर एक तरफ़ नाम भी रहने न दिया
वही ज़ंजीर है तेरे भी गले में 'राहील'
जिस ने सूरज को लब-ए-बाम भी रहने न दिया
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