बैन करती हुई सम्तों से न डरना 'बानी'
ऐसी आवाज़ें तो इस राह में आम आएँगी
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मुझे पता था कि ये हादसा भी होना था
कोई भूली हुई शय ताक़-ए-हर-मंज़र पे रक्खी थी
इक गुल-ए-तर भी शरर से निकला
मिरे बदन में पिघलता हुआ सा कुछ तो है
आज तो रोने को जी हो जैसे
'बानी' ज़रा सँभल के मोहब्बत का मोड़ काट
सियाह-ख़ाना-ए-उम्मीद-ए-राएगाँ से निकल
ग़ाएब हर मंज़र मेरा
माज़ी से उभरीं वो ज़िंदा तस्वीरें
दमक रहा था बहुत यूँ तो पैरहन उस का
सदा-ए-दिल इबादत की तरह थी
छुपी है तुझ में कोई शय उसे न ग़ारत कर