चलो कि जज़्बा-ए-इज़हार चीख़ में तो ढला
किसी तरह इसे आख़िर अदा भी होना था
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फैलती जाएगी चारों सम्त इक ख़ुश-रौनक़ी
छुपी है तुझ में कोई शय उसे न ग़ारत कर
ये ज़रा सा कुछ और एक-दम बे-हिसाब सा कुछ
आख़िरी मौसम
न हरीफ़ाना मिरे सामने आ मैं क्या हूँ
शामिल हूँ क़ाफ़िले में मगर सर में धुँद है
हमें लपकती हवा पर सवार ले आई
मैं उस की बात की तरदीद करने वाला था
'बानी' ज़रा सँभल के मोहब्बत का मोड़ काट
थी पाँव में कोई ज़ंजीर बच गए वर्ना
रही न यारो आख़िर सकत हवाओं में
ज़रा सा इम्कान किस क़दर था