इस अँधेरे में न इक गाम भी रुकना यारो
अब तो इक दूसरे की आहटें काम आएँगी
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क़दम ज़मीं पे न थे राह हम बदलते क्या
चलो कि जज़्बा-ए-इज़हार चीख़ में तो ढला
आसमाँ का सर्द सन्नाटा पिघलता जाएगा
वो हँसते खेलते इक लफ़्ज़ कह गया 'बानी'
माज़ी से उभरीं वो ज़िंदा तस्वीरें
हरी सुनहरी ख़ाक उड़ाने वाला मैं
घनी-घनेरी रात में डरने वाला मैं
ज़माँ मकाँ थे मिरे सामने बिखरते हुए
बैन करती हुई सम्तों से न डरना 'बानी'
किसी मक़ाम से कोई ख़बर न आने की
गुज़र रहा हूँ सियह अंधे फ़ासलों से मैं
सद-सौग़ात सकूँ फ़िरदौस सितंबर आ