इस तमाशे में तअस्सुर कोई लाने के लिए
क़त्ल 'बानी' जिसे होना था वो किरदार था मैं
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थी पाँव में कोई ज़ंजीर बच गए वर्ना
कोई भी घर में समझता न था मिरे दुख सुख
आख़िरी बस
इक ढेर राख में से शरर चुन रहा हूँ मैं
मामूल
फिर वही तू साथ मेरे फिर वही बस्ती पुरानी
हरी सुनहरी ख़ाक उड़ाने वाला मैं
आज इक लहर भी पानी में न थी
हमें लपकती हवा पर सवार ले आई
उड़ चला वो इक जुदा ख़ाका लिए सर में अकेला
'बानी' ज़रा सँभल के मोहब्बत का मोड़ काट
वो लोग जो कभी बाहर न घर से झाँकते थे