किसी मक़ाम से कोई ख़बर न आने की
कोई जहाज़ ज़मीं पर न अब उतरने का
Rahat Indori
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Faiz Ahmad Faiz
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Jaun Eliya
Ahmad Faraz
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मोड़ था कैसा तुझे था खोने वाला मैं
दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला
वो बात बात पे जी भर के बोलने वाला
मिरे वास्ते जाने क्या लाएगी
हरी सुनहरी ख़ाक उड़ाने वाला मैं
कोई भूली हुई शय ताक़-ए-हर-मंज़र पे रक्खी थी
मोहब्बतें न रहीं उस के दिल में मेरे लिए
तुझे ज़रा दुख और सिसकने वाला मैं
वो जिसे अब तक समझता था मैं पत्थर, सामने था
दिलों में ख़ाक सी उड़ती है क्या न जाने क्या
उड़ चला वो इक जुदा ख़ाका लिए सर में अकेला