मिरे वास्ते जाने क्या लाएगी
गई है हवा इक खंडर की तरफ़
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ये ज़रा सा कुछ और एक-दम बे-हिसाब सा कुछ
पैहम मौज-ए-इमकानी में
आख़िरी मौसम
नफ़ी सारे हिसाबों की
बगूले उस के सर पर चीख़ते थे
मिरे बदन में पिघलता हुआ सा कुछ तो है
तुझे ज़रा दुख और सिसकने वाला मैं
ओस से प्यास कहाँ बुझती है
मुझे पता था कि ये हादसा भी होना था
क़दम ज़मीं पे न थे राह हम बदलते क्या
मैं उस की बात की तरदीद करने वाला था
वो हँसते खेलते इक लफ़्ज़ कह गया 'बानी'