पैहम मौज-ए-इमकानी में
अगला पाँव नए पानी में
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दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला
उदास शाम की यादों भरी सुलगती हवा
उड़ चला वो इक जुदा ख़ाका लिए सर में अकेला
'नून-मीम-राशिद' के इंतिक़ाल पर
तुझे ज़रा दुख और सिसकने वाला मैं
न क़ाएल होते हैं न ज़ाइल
मामूल
मुझ से इक इक क़दम पर बिछड़ता हुआ कौन था
कोई भूली हुई शय ताक़-ए-हर-मंज़र पे रक्खी थी
ऐ लम्हो मैं क्यूँ लम्हा-ए-लर्ज़ां हूँ बताओ
दिल में ख़ुशबू सी उतर जाती है सीने में नूर सा ढल जाता है
मस्त उड़ते परिंदों को आवाज़ मत दो कि डर जाएँगे