फैलती जाएगी चारों सम्त इक ख़ुश-रौनक़ी
एक मौसम मेरे अंदर से निकलता जाएगा
Gulzar
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बैन करती हुई सम्तों से न डरना 'बानी'
बहुत कुछ मुंतज़िर इक बात का था
बगूले उस के सर पर चीख़ते थे
मस्त उड़ते परिंदों को आवाज़ मत दो कि डर जाएँगे
चलो कि जज़्बा-ए-इज़हार चीख़ में तो ढला
कोई भी घर में समझता न था मिरे दुख सुख
'बानी' ज़रा सँभल के मोहब्बत का मोड़ काट
हम हैं मंज़र सियह आसमानों का है
दिलों में ख़ाक सी उड़ती है क्या न जाने क्या
तीरगी बला की है मैं कोई सदा लगाऊँ
वो जिसे अब तक समझता था मैं पत्थर, सामने था
आज क्या लौटते लम्हात मयस्सर आए