शामिल हूँ क़ाफ़िले में मगर सर में धुँद है
शायद है कोई राह जुदा भी मिरे लिए
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पी चुके थे ज़हर-ए-ग़म ख़स्ता-जाँ पड़े थे हम चैन था
आज इक लहर भी पानी में न थी
बैन करती हुई सम्तों से न डरना 'बानी'
सरसब्ज़ मौसमों का नशा भी मिरे लिए
न हरीफ़ाना मिरे सामने आ मैं क्या हूँ
वो टूटते हुए रिश्तों का हुस्न-ए-आख़िर था
ज़रा छुआ था कि बस पेड़ आ गिरा मुझ पर
दमक रहा था बहुत यूँ तो पैरहन उस का
इक गुल-ए-तर भी शरर से निकला
'नून-मीम-राशिद' के इंतिक़ाल पर
ज़माँ मकाँ थे मिरे सामने बिखरते हुए
क़दम ज़मीं पे न थे राह हम बदलते क्या