थी पाँव में कोई ज़ंजीर बच गए वर्ना
रम-ए-हवा का तमाशा यहाँ रहा है बहुत
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बगूले उस के सर पर चीख़ते थे
ग़ाएब हर मंज़र मेरा
ओस से प्यास कहाँ बुझती है
दमक रहा था बहुत यूँ तो पैरहन उस का
तीरगी बला की है मैं कोई सदा लगाऊँ
इस तमाशे में तअस्सुर कोई लाने के लिए
न मंज़िलें थीं न कुछ दिल में था न सर में था
पैहम मौज-ए-इमकानी में
बजाए हम-सफ़री इतना राब्ता है बहुत
न क़ाएल होते हैं न ज़ाइल
न जाने कल हों कहाँ साथ अब हवा के हैं
मुझे पता था कि ये हादसा भी होना था