उड़ चला वो इक जुदा ख़ाका लिए सर में अकेला
सुब्ह का पहला परिंदा आसमाँ भर में अकेला
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वो टूटते हुए रिश्तों का हुस्न-ए-आख़िर था
आज क्या लौटते लम्हात मयस्सर आए
इक ढेर राख में से शरर चुन रहा हूँ मैं
वो हँसते खेलते इक लफ़्ज़ कह गया 'बानी'
आख़िरी बस
चलो कि जज़्बा-ए-इज़हार चीख़ में तो ढला
चमकती आँख में सहरा दिखाई साफ़ देता है
न मंज़िलें थीं न कुछ दिल में था न सर में था
फिर वही तू साथ मेरे फिर वही बस्ती पुरानी
बहुत कुछ मुंतज़िर इक बात का था
माज़ी से उभरीं वो ज़िंदा तस्वीरें
दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला