वही इक मौसम-ए-सफ़्फ़ाक था अंदर भी बाहर भी
अजब साज़िश लहू की थी अजब फ़ित्ना हवा का था
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न मंज़िलें थीं न कुछ दिल में था न सर में था
देखता था मैं पलट कर हर आन
हर्फ़-ए-ग़ैर
आसमाँ का सर्द सन्नाटा पिघलता जाएगा
ज़रा छुआ था कि बस पेड़ आ गिरा मुझ पर
न क़ाएल होते हैं न ज़ाइल
कोई भी घर में समझता न था मिरे दुख सुख
'बानी' ज़रा सँभल के मोहब्बत का मोड़ काट
वो एक अक्स कि पल भर नज़र में ठहरा था
'नून-मीम-राशिद' के इंतिक़ाल पर
कहाँ तलाश करूँ अब उफ़ुक़ कहानी का
लिबास उस का अलामत की तरह था