वो हँसते खेलते इक लफ़्ज़ कह गया 'बानी'
मगर मिरे लिए दफ़्तर खुला मआनी का
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ज़रा छुआ था कि बस पेड़ आ गिरा मुझ पर
नफ़ी सारे हिसाबों की
वो जिसे अब तक समझता था मैं पत्थर, सामने था
'नून-मीम-राशिद' के इंतिक़ाल पर
सियाह-ख़ाना-ए-उम्मीद-ए-राएगाँ से निकल
मिरे बनाए हुए बुत में रूह फूँक दे अब
अली-बिन-मुत्तक़ी रोया
न मंज़िलें थीं न कुछ दिल में था न सर में था
तुझे ज़रा दुख और सिसकने वाला मैं
दिन को दफ़्तर में अकेला शब भरे घर में अकेला
आज इक लहर भी पानी में न थी
किसी मक़ाम से कोई ख़बर न आने की