ज़रा छुआ था कि बस पेड़ आ गिरा मुझ पर
कहाँ ख़बर थी कि अंदर से खोखला है बहुत
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वो लोग जो कभी बाहर न घर से झाँकते थे
न जाने कल हों कहाँ साथ अब हवा के हैं
सदा-ए-दिल इबादत की तरह थी
मोहब्बतें न रहीं उस के दिल में मेरे लिए
आज क्या लौटते लम्हात मयस्सर आए
सद-सौग़ात सकूँ फ़िरदौस सितंबर आ
रक़्स
मस्त उड़ते परिंदों को आवाज़ मत दो कि डर जाएँगे
दोस्तो क्या है तकल्लुफ़ मुझे सर देने में
चलो कि जज़्बा-ए-इज़हार चीख़ में तो ढला
आख़िरी बस
रही न यारो आख़िर सकत हवाओं में