उड़ती रहती थी सदा ख़ित्ता-ए-वीरान में ख़ाक
उड़ती रहती थी सदा ख़ित्ता-ए-वीरान में ख़ाक
आ गई चुपके से अब के मिरे दालान में ख़ाक
मुतमइन था मैं कि आँधी को थमे अर्सा हुआ
ग़ौर से देखा तो क़ाबिज़ थी दिल-ओ-जान में ख़ाक
ख़्वाहिशें चाक पे रक्खी हैं कि सूरत उभरे
गर्द के साथ मिली है मिरे अरमान में ख़ाक
जिस को भी देखो वो बद-हाल नज़र आता है
अब तो दाख़िल हुई इंसान के ईमान में ख़ाक
भागती-दौड़ती दुनिया में किसे फ़ुर्सत है
जमती जाती है यहाँ मीर के दीवान में ख़ाक
जाने क्या गुज़रेगा अब क़ैस पे अल्लाह जाने
रेत सहरा में नहीं और न बयाबान में ख़ाक
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