अब तो इक पल के लिए भी न गंवाएँगे तुम्हें
ख़ुद को हारेंगे मगर जीत के लाएँगे तुम्हें
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ये न सोचा था कड़ी धूप से रिश्ता भी तो है
क़याम रूह में कर ध्यान से उतर के न जा
शाम की उड़ान
यूँ न बेगाना रहो गीत सुनाती है हवा
नज़र में धूल फ़ज़ा में ग़ुबार चारों तरफ़
ख़िलाफ़ सारी लकीरें थीं हाथ मलते क्या
सुना कि ख़ूब है उस के दयार का मौसम
तड़प उठता हूँ यादों से लिपट कर शाम होते ही
तेरी आवाज़
दस्त-ए-इम्काँ में कोई फूल खिलाया जाए