नमाज़-ए-इश्क़ तुम्हारी क़ुबूल हो जाती
अगर शराब से तुम ऐ 'रतन' वज़ू करते
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ये कौन सा मक़ाम है ऐ जोश-ए-बे-ख़ुदी
ख़्वाब ही में रुख़-ए-पुर-नूर दिखाए कोई
मौजों ने हाथ दे के उभारा कभी कभी
पहुँचे न जो मुराद को वो मुद्दआ हूँ मैं
ग़म की बस्ती अजीब बस्ती है
जुदा वो होते तो हम उन की जुस्तुजू करते
लुत्फ़ ख़ुदी यही है कि शान-ए-बक़ा रहूँ