Rubaai Poetry (page 17)
जंगल से घने ख़्वाब-ए-हक़ीक़त रम-ए-शब
शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी
जंगल की ये दिल-नशीं फ़ज़ा ये बरसात
तिलोकचंद महरूम
जल्वों की है बारगाह मेरे दिल में
जोश मलीहाबादी
जाहिल की है मीरास 'क़लक़' तख़्त-ओ-ताज
ग़ुलाम मौला क़लक़
जाहिल भी हैं सुक़रात-ए-सनद-ज़ाद भी हैं
मंज़ूर हुसैन शोर
जब तक कि सबक़ मिलाप का याद रहा
इस्माइल मेरठी
जब तक है शबाब-ए-साज़गार-ए-दौलत
जोर्ज पेश शोर
जब तजरबा की धूप में एहसास आया
अलक़मा शिबली
जब शाम ढली सिंगार कर के रोई
सना गोरखपुरी
जब रात गए सुहाग करती है निगाह
फ़िराक़ गोरखपुरी
जब मायूसी दिलों पे छा जाती है
अल्ताफ़ हुसैन हाली
जब किरनें हिमालिया की चोटी गूँधें
फ़िराक़ गोरखपुरी
जब काली घटाएँ झूम कर आती हैं
तिलोकचंद महरूम
जब हश्र में हों पेश अमल के दफ़्तर
फ़रीद परबती
जब गुलशन-ए-दहर में था मस्कन मेरा
वहशी कानपुरी
जब गू-ए-ज़मीं ने उस पे डाला साया
इस्माइल मेरठी
जब दस्त-ए-ख़िज़ाँ से बिखरे शीराज़ा-ए-गुल
अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद
जब चाँद की वादियों से नग़्मे बरसें
फ़िराक़ गोरखपुरी
जब बोलो तो बोलो ऐसे कलेमात
नावक हमज़ापुरी
जब भी करे यलग़ार अफ़्सुर्दा-दिली
अब्दुल अज़ीज़ ख़ालिद
जब बाप मुआ तो फिर है बेटा क्या शय
ग़ुलाम मौला क़लक़
जब अहल-ए-गुलिस्ताँ को शुऊ'र आएगा
नरेश कुमार शाद
जाने वाले क़मर को रोके कोई
जोश मलीहाबादी
जानाँ को सर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा है झूट सब
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
जाँ जाए पर उम्मीद न जाएगी कभी
ग़ुलाम मौला क़लक़
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
मीर तक़ी मीर
इतना न ग़ुरूर कर कि मरना है तुझे
मीर अनीस
इस्याँ से हूँ शर्मसार तौबा या-रब
मीर अनीस
इसराफ़ से एहतिराज़ अगर फ़रमाते
इस्माइल मेरठी
इस्मत पे तिरी निसार होना है मुझे
परवेज़ शाहिदी