आह! तेरे बग़ैर ये महताब
एक बे-सर की लाश हो जैसे
किसी दोज़ख़ के आतिशीं ये फल
आतिश-आमेज़ क़ाश हो जैसे
Faiz Ahmad Faiz
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हर माह लुट रही है ग़रीबों की आबरू
हम बनाएँगे यहाँ 'साग़र' नई तस्वीर-ए-शौक़
अब कहाँ ऐसी तबीअत वाले
छुप के आएगा कोई हुस्न-ए-तख़य्युल की तरह
चाँदनी को रसूल कहता हूँ
है एहतिसाब-ए-वक़्त की लटकी हुई सलीब
ऐ दिल-ए-बे-क़रार चुप हो जा
मैं ने लौह-ओ-क़लम की दुनिया को
ज़ख़्म-ए-दिल पर बहार देखा है
दुनिया-ए-हादसात है इक दर्दनाक गीत
ये जो दीवाने से दो चार नज़र आते हैं